ध्यान की तकनीक के लिए कौन से आसन एवं यदि कोई और जरूरी बात याद रखनी हो तो कृपया विस्तार पूर्वक बतायें।

व्यक्ति अपने अभ्यास अनुसार जमीन पर या कुर्सी पर बैठ सकता है। केवल पीठ और गर्दन को सीधा रखना है। महत्वपूर्ण है अपनी ऑंखों की पुतलियों को स्थिर रखना। यदि ऐसा कर पाने में आप कामयाब हो जाते हैं तो एकदम मन एकाग्र होकर अर्न्तमुखी हो जाता है।
महर्षि पतंजलि ने योग यूत्र में ध्यान में 4 अवरोधक
के बारे में कहा है।
1 शरीर में हलचल
2 श्वास
3 आखों का अस्थिर होना
4 स्वंय मन
कभी कभी हम ध्यान से पहले प्राणायम् करके श्वास को स्थिर करते हैं। हम श्वास पर ध्यान केंद्रित नही करते। जब मन पर नियंत्रण होता है तो अपने आप ही श्वास नियंत्रित हो जाती है।
दो मुख्य बातों का ख्याल रखिए:
(1) किसी मंत्र के उच्चारण की आवश्यकता नहीं है। बिना किसी बाहरी वस्तु या मदद के आप अपने मन को स्वयं में केंद्रित होने की आदत डाल रहे हैं।
(2) कोई भी कल्पना मत किजिए। जब आप ध्यान के लिए बैठते हैं तो हजारो विचार उमड़ पड़ते है। दृष्य भी दिखाई देने लगाते हैं। हर समय याद रखना की आपको विष्लेषण नही करना है। मन का स्वभाव है विष्लेषण करना।यह अच्छा है,यह बुरा है। ऐसा क्यों हो रहा है। ऐसा क्यों नहीं। सत्य क्या है। वह हमेशा इन बातो में उलझा रहता है।गुरू ऐसा न करने की शिक्षा देते हैं। यदि आप विष्लेषण नहीं करते हैं तो मन के पास कोई कार्य शेष नही रह जाता और वह पीछे हट जाता है ।जब मन पीछे हटता है तो यह विचार अंतर्धान हो जाते हैं। यह इसलिए क्योंकि मन और दिमाग में एक विचित्र सबंध है।मन आपकी अपनी चेतन शक्ति है और दिमाग,शरीर का एक अंग। मन और दिमाग का अस्तित्व एक दूसरे के कारण ही है। मन का अस्तित्व दिमाग की वजह से है और इसलिए वह सक्रिय है। ठीक उसी प्रकार दिमाग का अस्तित्व भी मन के कारण है और इसलिए वह सक्रिय भी है। दिमाग के कारण ही सृष्टि का बोध होता है।
दिमाग यहॉं एक टेप रिकॉडर की भॉंति काम करता है और मन एक टेप की तरह जिसमें असंख्य जन्मों की आदतें अर्जित हो चुकी हैं। जिनसे वह गुजर चुका हो सकता है।
यह सब अवचेतन मन में स्थित होता है।जब आप ऑंखे बंद करके ध्यान के लिए बैठते हैं तो आदत के अनुसार मन दिमाग को प्रयोग में लाने लगता है। यह एक स्वचलित प्रक्रिया है।जैसे ही मन की शुद्धि शुरु होती है, मन में अर्जित संस्कार साफ होने लगते हैं किन्तु दिमाग के स्वभाव के कारण वह इन संस्कारो को विचार एवं दृष्यों के रुप में दिखाता है। इन्हें देखने के दौरान आप दोबारा इनका विष्लेषण, आदत से मजबूर होने के कारण करने लगेंगे और एक भवॅंर में फॅंस जाएँगे । एक बार आप विष्लेषण करके निर्णय लेते हैं तो आपका मन यह बात ग्रहण कर लेता है। यह तकनीक आपके जाने बगैर काम करती है और मन इसे सीख लेता है। उदाहरण के तौर पर यदि आपने किसी बात के बारे में निर्णय लिया कि यह अच्छा है तो मन में एक भावना की तरह अर्जित हो जायेगा,हमेशा के लिए चाहे वो भले ही खराब क्यों न हो। इस तरह मनोविज्ञान एवं मानसिक कल्पना काम करती है।कभी मित्र शत्रु तो कभी शत्रु मित्र प्रतीत होता है।
गुरू यहॉं यह शिक्षा देता है कि यह मानसिकता छोड़ कर मन को पूर्णता शांत कर लें।
जब यह मन शांत हो जाएगा, एक दिन जब संपूर्ण विचार, दृष्य गायब हो जायेंगे तब आप अनुभव करेंगे कि आप अदृष्य नहीं होते। आप कहीं नहीं जाते।इसका तात्तपर्य यह है कि किसी अस्तित्व की चेतना रहती है।आप उसी पर ध्यान केन्द्रित कीजिए ताकि वह पूर्णता से शांत हो जाए और आप आपने अस्तित्व को परम चेतना के रूप में अनुभव करें।इस अवस्था की कोई परिभाषा नहीं है, कोई विचार नहीं है। आप परम सत्य को अपने से भिन्न नहीं जान रहे हैं। आप अपने शाश्वत अस्तित्व को अनुभव कर रहे हैं और यह परम शान्तिदायक है। यह सिर्फ संकेत है, एक छोटा सा सूत्र आपको अनुमान लगाने के लिए। इस सत्य को जानने के लिए मूर्तिपूजा, नाम या कथायें एक प्रारंभिक तौर पर दी गई हैं।
यद्यपि आप इस धारणा को समझ जाते हैं तो आप उस परम सत्य को जान सकते हैं, धीरे-धीरे आप केन्द्रित हो जाएँगे ।

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